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Saturday, April 3, 2021

Kerfuffle

I don't know what is happening to me. I am not the same person anymore, small changes that I can very well witness in my personality. I don't know what is the stimulus of these changes. what's cultivating these changes?

Do we call this thing growing up? but isn't it supposed to be a positive thing? See, another change right here I did, I changed the paragraph for this piece. before I never gave a shit to these things, I wrote today that's another change right there, let alone changing the paragraph, I used to write daily. 

Now you will say 'isn't it a good thing that you changed the paragraph? it gives more definition to your writing.' I agree, one hundred percent. but I was happy before with that sloppy writing. I had a passion of some sort in my life. I used to read more so that I can write better. I used to go to open mics and share my poetry with this world. I believe I had a great life. 

Now I have an average level paying job, Working from Home due to this fucking pandemic. I am left with no friends, I don't remember when was the last time I had a real laugh. I have no companion to share my day with, well that would be whole another blog.

Well, you know what? I just realized that I have written this piece so far, I am really feeling proud of myself, maybe I will post this on my blog. 

but still, I would have to figure out if I can call these changes as positive ones. 

Monday, March 8, 2021

Random thoughts

#1 That moment where you are too much engrossed in self pitty when you are typing a comment or a text to someone cause they posted something really nice and which triggers you to involve in their lives, but then this thought emerges in your mind, some kind of a flashback or see a ghost from the past that you slowly delete all you have written and you wonder how helpless and desponded you are that you can't even control your thoughts about that person.

#2 How bizzare it is that the melodious beats and thump of a dhol in any Indian wedding always felt so thrilling and magnetic to the dance floor your whole life, but when you are of age and attending the marriage of someone your age, the same magnetic dhol beat becomes so annoying, head banging and constantly telling you that it's you.. your end is near. and you cant escape it.

Freehand Poetry #2



वह एक तरुवर विशाल है
वह एक तरुवर विशाल है,

जो जिन्दगी की ढाल है
बेबाक उसकी चाल है
सबको राह दिखाती वो मशाल है,
संघर्षों की शीत लहर मैं,
वो अकेली गरम शाल है,
जीवन की चुनौतियों ने,
की घायल जिसकी खाल है,
जो करता सबकी देखभाल है।

एक वो सुजान है,
रहते जिसके सब में जान है,
वो वीरता का गान है,
परिवार का वो मान है।

सच्चाई और कर्तव्यनिष्ठा का प्रतीक है,
मिलती उससे जिन्दगी की सीख है।

सहारा दिये खड़ा वो स्तंभ है,
वो सुखों का प्रतिबिंब है।

मेरे जीवन को रंगना मैं चाहूँ,
वो ही तो वो रन्ग है,
खातिर कुटुम्ब के लड़ी,
उसने हजारों जंग है,
खुशनसीब हुँ की वो मेरे संग है।

वो शक्ति है, उर्जा का सार है,
हम बन्दे उसके वो परवर दिगार है,
वो खिवैया जो करता सबकी नौका पार है,
हमको जीवन देता वो,
एक ररुवर विशाल है
वह एक तरुवर विशाल है।

Freehand Poetry #1


Zindagi kya hai .. 
Ek maashooka hai ruthi si..

Ek khwaab hai,
jisme mai hu tum ho,
Jisme hazaar rang hai..
Jisme sabhi man malang hai..
Jisme khushmizon ki afrozi hai..
Jisme badhawason ki madhoshi hai..
Jahan koi tanz nahi hai
Jahan dilon mai ranj nahi hai..
Aankhein meeche rahiye..
Sirf khwaab hai hakikat nahi hai.

Wo jo mohabbat thi 
ab kahin gum hai andheron mai,

Andheron se khauff nahi hai..
Par wo andhere bhi ghum hai aur ghane andheron main..
Ab sirf aawaazein hai jo sunai deti hai
Ab sirf kuch tasveerien hai jo yaad mai rehti hai..

Hijr hai malaal hai..
Sang dili ka bichhaya hua jaal hai..
Par mai has raha hu..
Par mai chal raha hu..
Bachi kuch khwahishein aur muskaanein hai jhuthi si..

Zindagi kya hai .. 
Ek maashooka hai ruthi si..

Thursday, December 24, 2015

ठहर ज़रा


ज़रा
ठहर ज़िन्दगी,
अभी  तो आई है,
जिस मोड़ पर थी ज़रूरत तेरी,
तुने वहीँ से रुखसत पाई है,

बैठ ज़रा,
शतरंज की बाजियां हों,
गुफ्तगू के दौर चलें,
सुनने को आज तेरी मेरी कहानियां हो,

पराजित तो कोई क्या कर सका तुझे,
काफी बुलंद लगते तेरे इरादे होंगे,
मात दे पाऊँ तुझे तो क्या?

अगली चाल में तेरे घर,
मेरे भी दो प्यादे होंगे,

देख उस खिड़की से बचपन में,
" सूरज " दिखाई आता है,
लिए मन में आशा,
दौड़े घास में नंगे पैर,
बेफिक्र बेतहाशा,

जिसे ज़िन्दगी,

तेरी रीतियों का होश नही है,
साफ़ है दिल जिसका अभी,
मैली कमीज है,
पर सोच नहीं है,

दिन--दिन देख तेरी,
शैतानी रतनार नुमाइशें,

मैं हैरान हो  गया,

जब खाई ठोकर तेरी राहों में,
तो मैं जवान हो गया,

खो गया किस तरह,
तू ही बता, ज़िन्दगी!

मैं क्या था और क्या हो गया,
तू ही बता, ज़िन्दगी!

तूने सितम तो सभी पर ढाए हैं,
भूख लगती है,
तो लोग रोटी खाते है,
मैंने चक्कर खाए हैं,

तुझे लगा होगा,
कि यह तो सरल हो गया,

जिस थल में,
मैं गिरा चक्कर खाकर,
वहीँ मेरा मखमल हो गया,

जब नींद खुली सवेरे मेरी,
तो करी निंदा तेरी, ज़िन्दगी!

मेरी हार पर,
तूने लगाये ठहाके,
मैं हुआ शर्मिंदा, ज़िन्दगी!

पासों की तरह फेंका तूने,
दुनिया की चौकड़ी में,

मैं पलट जाऊं या रहूँ जैसे भी,
तेरी चाल तो तू चल ही गयी, ज़िन्दगी!

खैर जा तू अब,
कोई खड़ा हाथ जोड़े,
सिर झुकाए भीख में,
किसी के लिए,
माँग रहा है तुझे,

जा किसी को मुक्त कर दे इस बंधन से,


जा किसी की हो जा, ज़िन्दगी!

Tuesday, December 8, 2015

साया

क्या वजूद इसका,
क्या कहानी है,
इसके होने का अस्बाब क्या,
मिला इसे ऐसा खिताब क्या,

आलिमों फाज़िलों को भी,
तस्सवुर नहीं इस राज़ का

तन का यह असीर हो गया,
मन का यह नसीर हो गया,

तुम्हारी गलतियों को माफ़कर,
तुम्हारी नादानियों को जानकर,
तुम्हारी हर शर्त को मान कर,
जो साथ तुम्हारे आया है,
कहते इसको साया है,

तुम भीगे तो यह भीगा,
तुम दौड़े तो यह दौड़ा,
तुम लगे जलने,
तो यह भी हो गया भस्म,

तुम ही से यह होता शुरू,
तुम ही पे होता ख़त्म,

जो विघ्नो में साथ छोड़ दे,
यह वो यार नहीं,

यह तो दुआ है,
किसी अपने की,

यह तो कल्पना है,
किसी सपने की,

यह तो याद है,
किसी ख़ास की,
यह लिए बेचैनी है,
किसी प्यास की,

साथी है जैसे,

मलाल है किसी कायर का,
कलम दवात है किसी शायर का,
सुर है सितार का,
दर्द है प्यार का,
मायूसी किसी हार पे,
आंसू किसी रुखसार पे.


साया चलता बटोरे,
हर उज्जवल याद को,

रहता साथ सिर्फ,
उजले पल में,
अँधेरे में जाने की,
इसको आदत नहीं,

यह तो जीया सिर्फ तुम्हारे लिए,
फिर भी तुम्हे लगता,कि
तुम्हे मिलती चाहत नहीं,

लेकर कई राज़ तुम्हारे,
दफ़न होता साथ तुम्हारे,

इसको रहता याद है,
तुम्हे किस चीज़ का गम,
किस चीज़ का मलाल है,

क्या तुमने खोया,
क्या तुमने पाया,

मेरा साया भी रखता इल्म,
की मैंने कितने पल किये ज़ाया हैं, 

कहते इसको साया है,

Thursday, October 1, 2015

अंतिम संकल्प

विष बोली कर श्रवण मैं,
सांस ना मिले इस पवन में,
ऊंच नीच देख लोक काल,
उलझाये मुझे मेरे स्वपन जाल,

अगर उठाये मैंने वदन बचाव में,
करना पड़ा सहन सभी इन घाव में,

रख कर ख़ुशी सब ताक में,
जब चला निर्भय तो मिल गया खाख में,
देखूं दूर कहीं तलाश में,
दोष खुदी में पाता हूँ,
चाहता हूँ कहना बहुत कुछ,
पर कह कुछ नहीं पाता हूँ,

विलाप में करता हूँ,
पर अश्रु विलुप्त रहते हैं,
कोई समझा नहीं यह राज़,
उल्टा पीढ़ मुझे और देते है ,

आंसू गिरते उनके जब सुनते मेरी बात में,
अम्बर को रोता देखा है मैंने घनी रात में,
 समझ चूका हूँ अब कोई नहीं मेरे साथ में,



नहीं किसी का हाथ अब मेरे हाथ में,

रात घनी अभी भी कटी नहीं,
चल रहा हूँ में,
नम हूँ तन से,
लेकिन अंदर कहीं सुलग रहा हूँ में,

ना शिकवा किसी से,
ना कोई शिकायत है,
ना प्यार किसी का,
ना किसी की इनायत है,

अजीब यह इत्तफाक है,




ना यह सब  कोई लतीफा है,
ना कोई मज़ाक है,

चेहरे पर फिर भी मुस्कान है,
लगने लगा आगे रास्ता आसान है,

रखता हूँ अब कलम,
महान यह क्षण,
यह पल है,

महान यह मेरा अंतिम संकल्प है॥