गीली गंदली सी ज़मीन
सोखे ,
मट मैले यह
कपडे मेरे ,
थोड़ा रोके थोड़ा
पीके आंसू ,
अपनी मुस्कान को मैं
खत लिखता हूँ,
जब होठ सुर्ख
पड़ जाते है,
और गला दर्द
कर उठता है,
लगता है इक
दिन बीत गया,
अब उठने को
जी करता है,
इन काली दीवारों
से कुछ नहीं
पता लगता है,
जाके दरवाज़े पे करता
हूँ खट खट,
तोह कोई चेहरा
रोटी डाल जाता
है,
रूखी सूखी होके
दुःखी ,
मैं दो निवाले
खाता हूँ,
जो खा रहे
हो माँ के
हाथ का खाना,
तुम खुशनसीबों के नाम,
मैं यह खत
लिखता हूँ ||
काले पन में
बीत गयी,
सदियाँ कितनी याद नहीं,
उम्र मैं क्या
याद करूँ',
जब याद मुझे नाम
नहीं,
कब आँखों में पड़ी
थी रौशनी,
मुश्किल लगता बतलाना
है,
क्या
समझाऊं मैं किसी
को दर्द अपना,
जब लगता आसान
दर्द को
पाना है ,
कुछ दिखता है तो
एहसास अपने आप
का,
यहाँ सिर्फ अन्धकार है
,
चाहे दिन हो ,
चाहे हो रात,
मैं हर पल
बस जगता हूँ,
आज़ादी के उन
उजालों के नाम,
मैं
यह खत लिखता
हूँ||
शायद सभी भूल
हैं चुके हैं
मुझे,
किसी को
मैं याद नहीं,
माँ के हाथ
से जो चढ़
रही है माला
मेरी तस्वीर पे,
लगता है उसको
भी मुझमे अब
सांस नहीं,
ज़िंदा हूँ में
सिर्फ एक जगह,
एक ही जगह
है मेरी पहचान,
गुमनामी के बाज़ार
में,
हर दिन में
बिकता हूँ,
अपने वतन
के नाम,
मैं यह खत
लिखता हूँ,
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