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Thursday, August 28, 2014

रातें

आसमान को यह नैन जब निहारने लगे,
रात के सन्नाटों में खो जाने लगे ,

यह रात भी कुछ शरमाने लगी,
आसमान के आँचल में सिमट जाने लगी ,

जैसे जैसे इस निशा पे काली घटा छाने लगी,
चाँद की सफेदी में भी मीठी सी लाली आने लगी,

नज़रें उससे हटी नहीं कमाल हो गया,
कोई तारा जैसे पिघल के आफताब हो गया,

इन रातों का भी अलग ही समां होता है
जागती रहती है सेहर तक,
जब यह जहाँ सो रहा होता है,

तारों को सीने से लगाये रखती है,
उन्हें बादलों की घनी चादर उड़ाए रखती है,
हवा यूँ चेहरे से टकराती है,
जैसे किसी की याद दिल रही हो,
सुनसानियत ऐसे गले लगाती है,
जैसे किसी प्यासे को  पानी पिला रही हो ,

इन रातों में जब बरसातें होने लगे तोह यह एक मीठी सी सरगम सुना दे,
गिरती बूंदें हमें और प्यासा  बना दे,
भीगती इस निशा की घटा  गीत सुना दे,
मिठास उस गीत की जैसे सब कुछ भुला दे,

निहारते हुए इस रात को आँखें बोझल हो चली ,
आँखों से यह तस्वीर ओझल हो चली,
अब नींद सी मुझे भी आने लगी है,
लगता है यह रात मुझे भी बादलों की चादर उड़ाने लगी है,
सूरज  विजय सक्सेना 

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